अब आगे...
रात के ११ बज रहे थे। मगर हवेली के एक कमरे में अभी भी लाईट जल रही थी। और वो कमरा था आनंदी का। जो अपने आलीशान कमरे के गद्देदार बेड पर बैठी थी। वो ख़ामोश और मायुस बैठी अपनी आँखें भरे। एकटक अपने बेटे की तस्वीर देखती रहती है। वो अजय की तस्वीर देखती-देखती कुछ सोंच की दुनीयां में चली जाती है...
"आ..आ...आ...माँ ना मारो, लग रहा है।"
अजय रोते हुए छटपटा कर इधर-उधर भागते हुए बोला। मगर आनंदी तो उसे हरे लतेदार डंडे से पीटते ही जा रही थी।
"लग रहा है नालायक, आँ...बोल! जब देखो तब मेरे पीछे ही जासूसी करता रहता है। मुझे बदनाम करता है, अपनी माँ को! मेरा खा कर मुझे ही धौंस दीखाता है, बीत्ते भर का है और बाते बड़ी-बड़ी।"
आनंदी बोलते हुए अजय को पीटे जा रही थी। और बेचारा अज़य रोते हुए छटपटाता रहता है। सवीता और रागीनी आगे बढ़ कर आनंदी को पकड़ कर रोकने लगती है। मगर आनंदी उन्हे भी झटक देती है। और गुस्से में बोली-
आनंदी: "सुक्खे...!"
तभी सुक्खे दौड़कर आता है।
सुक्खे: "जी...मालकीन!"
आनंदी: "ले जा इसे कोठरी में बंद कर दे। और जब तक मैं ना कहूँ, इसे खाना-पानी कुछ मत देना।"
ये सुनकर सुक्खे का दील पसीज़ जाता है। और हांथ जोड़ते हुए दबी आवाज़ में कहता है...
सुक्खे: "जाने दीजीए मालकीन! बच्चा है...!"
इतना बोलना था की, तब तक एक जोर का थप्पड़ सुक्खे के गाल पर पड़ता है।
"साले...औकात में रह, जीतना बोला जाये उतना कर समझा।"
ये आवाज़ संतोष की थी। सुक्खे बेचारा भी क्या करता। वो अजय को लेकर कोठरी की तरफ़ जाने लगता है। मगर अजय जो अभी तक रो रहा था, वो अचानक से चुप हो जाता है। और मुस्कुराते हुए उस कोठरी में चला जाता है।
ये देख कर आनंदी हैरान रह जाती है। वो कुछ सोचती उससे पहले ही...
संतोष: "भाभी चलो, हमे देर हो रही है।"
आनंदी (हड़बड़ा कर): "ह...हाँ।"
उसके बाद वो और आनंदी गाड़ी में बैठकर कही चले जाते है।
रात को करीब १0 बजे जब आनंदी होटल पहुंचती है तो...
आनंदी: "संतोष...जरा घर पर फोन लगा के पुछो, अजय ने कुछ खाया या नही? पता नही क्यूँ आज मेरा दील घबरा रहा है। मै तो सुबह होते ही घर चली जाउगीं।"
ये सुनकर...संतोष!
संतोष: "ये क्या कह रही हो भाभी तुम? कल तो हमारे डीग्री कॉलेज की मान्यता का मीटींग है। कीतना ज़रुरी है तूम्हे पता है ना? और तुम जाने की बात कर रही हो?"
आनंदी: "कुछ भी हो, मुझे अजय की बहुत चींता हो रही है। ये क्या कर दीया मैने। अपने ही बेटे को पीटती रही, वो भी मेरी खुद की गलती पर! तुम्हारे सांथ रंगरेलीया मनाती रही, और जब उसने देख लीया और आवाज़ उठाई तो। अपनी काली और गंदी करतूत छीपाने के लीए, हर बार उसे पीटती रही। छी: कैसी माँ हूँ मै? मैं तो माँ कहलाने लायक ही नही रही। पर अब नही! अब मेरे बेटे को मैं अपने दील में छुपा कर रखुंगी।"
ये सुनते हुए संतोष आगे बढ़कर आनंदी का हाथ थाम लेता है। मगर आनंदी उसका हाँथ झटकते हुए-
आनंदी: "दूर रहो मुझसे, ये सब यही खत्म!"
इतना बोलकर आंनदी दुसरे कमरे में चली जाती है। और रोने लगती है।
अगले दीन आनंदी मीटींग ज्यादा इंपोर्टेंट होने की वजह से, मीटींग में जाना पड़ा। उसका दील घबरा रहा था। और जैसे ही शाम के ५ बजे मीटींग खत्म हुई। वो संतोष के साथ घर के लीए नीकल पड़ी...
घर पहुंचते ही। वो भागती हुई हवेली के अंदर जाती है और...
आनंदी: "अजय...अजय...मेरा बेटा कहाँ है तू?"
तब तक सामने सुक्खे खड़ा दीखाई पड़ा...
आनंदी: "सुक्खे...! अजय कहाँ है?"
सुक्खे: "मालकीन...! अजय बाबा तो, कोठरी में बंद है। आप ने ही तो बंद कराया था। याद नही आपको...?"
ये सुनते ही...आनंदी के पैरो तले ज़मीन और सर से आसमान दोनो खीसक जाते है। वो अपने मुह पर हांथ रखती हुई...
"हे भगवान...ये...मै...!!"
और इसके आगे कुछ बोल नही पाती और रोते हुए कोठरी की तरफ भागती है।
धणाम्...से कोठरी का दरवाज़ा खुलता है। बढ़ चुकी तेज धड़कन और घबराहट के सांथ जैसे ही, आनंदी कोठरी मे घुसती है, तो देखती है की, अजय एक कोने में दुबका बैठा टक-टकी लगाये अपनी माँ को ताक रहा था। और फीर अचानक से उठता है, और भागते हुए कोठरी से बाहर नीकल जाता है...
आनंदी, सुक्खे और संतोष को कुछ समझ में नही आता। और आनंदी भी कोठरी से बाहर भागती है अजय...अजय चील्लाते, लेकिन तब तक तो अजय उन सब की आँखो से ओझल हो चुका था।
"बड़ी माँ"
ये आवाज़ सुनते ही, आनंदी अपनी सोंच की दुनीया से बाहर नीकलते हुए अपने आँशुओ को पोछती हुई देखती है तो, दरवाजे पर रोहित खड़ा था।
आनंदी उसे देखते हुए थोड़ा रुवांसी होकर बोली
आनंदी: "अरे...मेरा राजा बेटा! अभी तक सोया नही?"
रोहीत आनंदी के नज़दीक आकर, उसके बेड पर बैठते हुए-
रोहित: "नींद नही आ रही थी बड़ी माँ, तो आपके पास चला आया।"
आनंदी उसे अपनी बाहों में प्यार से भरते हुए-
आनंदी: "अच्छा कीया! आजा अपनी बड़ी माँ के पास सोजा।"
और इतना कहकर, वो रोहीत के सांथ बेड पर लेट जाती है....
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अगली सुबह अजय उठ कर नाश्ता करता है और फीर लालमनी के सांथ प्राईमरी स्कूल में जाकर अपना दाखीला कराता है।
अजय के लीए उसके बाप की दी हुई सोने की चेन, अमृत साबीत हुई। नही तो अजय की ज़ींदगी आसान ना होती। अजय की होशीयारी और सूझ-बूझ से अपनी जींदगी को प्रकाश की तरफ़ बढ़ा रहा था। वो लालमनी से तभी पैसे लेता जब बहुत जरुरी होता।
दीन बीतता गया, अजय मन लगाकर पढ़ाई करता। वो अपनी यादों को पीछे छोड़ चूका था। शायद ये सोचकर की यादें तकलीफ़ देती है।
आज अजय ८वी की परीक्षा अच्छे अंक से उत्तीर्ण की। उस क्षेत्र के एम॰एल॰ए ने अजय को स्कूल में पुरस्कृत कीया। और उसकी पढ़ाई के प्रती लगन और मेहनत को देखकर, १0वी तक की पढ़ाई का खर्चा उठाने का जीम्मा लीया।
अजय रुका नही। बल्की अपनी मेहनत और लगन के दम पर! हाईस्कूल की परीक्षा ९८% के उच्चतम अंक के सांथ उत्तीर्ण की।
अजय को ज्ञान मंदीर संस्था के द्वारा सम्मानीत कीया गया। और आके की पढ़ाई के खर्चे का जीम्मा भी उस संस्था ने लीया।
अजय अपने घर में बैठा बहुत खुश था। वो घर से बाहर नीकल कर लालमनी के दुकान पर जाता है।
अजय: "कैसा है गोबर?"
लालमनी: "तू मुझे गोबर क्यूँ बुलाता है? मेरा नाम है, वो लेकर बुलाया कर।"
अजय: "अरे गोबर महाशय, ये सब छोड़ो, और मेरा एक काम करो! मुझे अभी ५ हज़ार रुपये दो। और हाँ मैने इ.एम.आई पर फोन लीया है। २ हजार रुपये हर महीना सोनू के दुकान पर पहुंचाते जाना।"
लालमनी: "ठीक है महराज, पहुचां दूंगा। पर तू मेरा एक काम कर दे। मेरी लुगाई आज मायके जा रही है, कीसी काम से मैं नही जा पा रहा। तो क्यूँ ना तू चला जा? छुट्टी है थोड़ा घूम टहल लेगा तेरा भी मूड सही हो जायेगा।
अजय: "हम्म्म...बात तो तुमने ठीक कहा। ठीक है मैं चला जाउगां।"
और ये कहते हुए, अज़य पान की एक दुकान पर जाता है, और एक सीगरेट लेकर मुह में जैसे ही डालने को होता है...
"अरे तू सीगरेट पी रहा है?"
अजय हड़बड़ाते हुए, देखा तो पीछे लालमनी की औरत खड़ी थी।
"अ...अरे, नही ताई वो तो गोबर ने मगांया था तो लेने आ गया।"
ये सुनकर कमलावती जल-भुन कर बोली-
"क्या? वो सीगरेट पीता है? चल तू मेरे सांथ देखती हूँ मैं।"
अजय फीर कमलावती के पीछे-पीछे दुकान की तरफ बढ़ चलता है।
पीछे चलते हुए, अजय की नज़र कमलावती के दोनो मोटे और चौंड़े चुतड़ो पर पड़ी...तो अजय के मन में ना जाने क्या होने लगा। लेकीन तब तक वो दुकान पर पहुचं जाते है।
कमलावती दुकान के अंदर घुसते ही।
"तू नीठल्ला सीगरेट पीता है?"
कमलावती का भयानक रुप देख कर, लालमनी बोला-
लालमनी: "कैसी बात कर रही है मेरी कल्लो, आज तक कभी देखा पीते हुए?"
कल्लो: "ओ...हो हो, बड़ा आया! तो फीर अजय से सीगरेट क्यूँ मगाया?"
लालमनी चौंकते हुए-
"अजय से..."
इतने में अजय पीछे से इशारा करता है की, अपनी इस भैंस जैसी लुगाई से बचा ले।
लालमनी इशारे को समझने के बाद...
लालमनी: "अरे हाँ वो, एक ग्राहक आया था तो, उसके लीए मगांई थी।"
ये सुनकर कल्लो आँखे तरेरते हुए-
कल्लो: "सच में ग्राहक के लिए था?"
लालमनी हांथ जोड़ते हुए...
"अरे हाँ मेरी माँ..."
फीर कल्लो थोड़ा शांत होती हुई एक सांस लेती है फीर बोली-
कल्लो: "मेरी भतीजी की शादी है, तुम तो जाने से रहे, तो क्या मैं अकेली जांऊ?"
लालमनी: "अरे अकेली क्यूँ? ये है ना अज़य! इसे बोल दीया है। ये चला जायेगा।"
ये सुनकर कल्लो वहीं गद्दे पर बैठ जाती है। और फीर बोली-
कल्लो: "ये ठीक है! अच्छा मुझे कपड़े लेने जाने हैं। टीकट करा दी है ना बस की?"
लालमनी: "अरे हाँ करा दी है।अब जाओ' मुझे काम करने दो।"
उसके बाद अजय दुकान से बाहर चला जाता है।
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इधर हवेली में सब टेबल पर नाश्ते के लीए बैठे थे।
"बस बड़ी माँ, अब मुझसे और नही खाया जाता"
ये आवाज़ रोहीत की थी, जो १६ साल का हो गया था अब।
आनंदी उसके प्लेट में एक और देसी घी से बना पराठा रखते हुए बोली-
आनंदी: "बस ये एक और बेटा! खायेगा नही तो कमज़ोर हो जायेगा। और ये बात तेरी बड़ी माँ को अच्छा नही लगेगा।"
आनंदी ये बात थोड़ा रुठने का नाटक करते हुए बोली-
आनंदी को रुठते देख...
रोहित: "एक नही दो खा लूंगा बड़ी माँ। पर तू रुठा ना कर, मुझे अच्छा नही लगता।"
ये बात सुनकर आनंदी मुस्कुरा पड़ती है। और रोहित के गाल को चूमते हुए बोली-
आनंदी: "मेला बच्चा! पराठा खत्म कर जल्दी से। और फीर ये बादाम का दूध भी पीना है, नही तो मैं फीर से रुठ जाउगीं!"
ये सुनते ही, रोहित फटाफट पराठा और फीर दूध गटक जाता है। और फीर बोला-
रोहित: "अब खुश!"
ये सुनकर वहा नाश्ता कर रहे सब लोग हंसने लगते है। और फीर रोहीत बाईक की चाभी लेते हुए घुमने नीकल जाता है।
सब तो खुश थे, मगर उस समय वहां बैठी, नंदीनी चुपचाप नाश्ता कर रही थी। जीसे आनंदी देखते ही, उसके चेहरे की भी हंसी गायब हो जाती है।
आनंदी को पता था की, नंदीनी क्यूँ चुपा-चाप है? आनंदी उसके बगल में बैठते हुए बोली-
आनंदी: "याद आ रही है अजय की? जो इतनी शांत बैठी है मेरी प्यारी बेटी?"
ये सुनकर नंदीनी टेबल के नीचे से फोन नीकालते हुए अपनी माँ को दीखाते हुए बोली-
नंदीनी: "चैट कर रही थी फ्रैंड से! कीसी को याद नही। अब क्या ज़ीदंगी भर उसको याद करते ही बैठी रहूगीं क्या? ७ साल हो गये। कुछ पता नही उसका! इतना ढुंढने के बाद भी। और वैसे भी अगर वो जींदा होगा तो पता चलेगा ना!!"
ये लास्ट के आखिरी शब्द सुनते ही, आनंदी के तो हांथ-पांव फुलने लगे। और गुस्से में एक जोर का तमाचा नंदीनी के गाल पर जड़ देती है।
आनंदी: "बद्तमीज़ कहीं की...!"
वहां बैठे सब चौंक से जाते है। लेकीन तभी नंदीनी चेयर पर से गुस्से में उठती हुई नाश्ते की प्लेट को फर्श पर जोर से फेंकती हुई बोली-
नंदीनी: "मैं कोई अजय नही, जीसे तू जब चाहे तब पीट देगी, दुबारा हांथ सभांल कर उठाना, नही तो तोड़ कर फेंक दूंगी। घटीया औरत कहीं की...जब बेटा था, तब मार-पीट और जब नही है तो, ७ साल से बेइंतहा प्यार।"
और ये कहकर नंदीनी वहाँ से उठते हुए चली जाती है। सब लोग नंदीनी का ये रुप देख कर हैरान थे। आनंदी तो जैसे अपने आपे में ही ना रही हो। आंनदी की हालत ना तो रोने जैसी थी और ना ही गुस्से की। उसकी हालत तो बेबस,लाचार और मायूस औरत की तरह थी। जो ना तो रो पा रही थी और ना ही हंस पा रही थी।
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अजय शाम को घर पहुंचा तो, सीधा कल्लो के घर में घूस जाता है। ये देखने के लीए की, क्या कल्लो तैयार हो गई है?
और जैसे ही वो कल्लो के कमरे में घुसता है। उसकी आँखें चौंधीया जाती है।
३८ साल की कल्लो, ब्रा और पैंटी पहने आईने के सामने खड़ी अपने बाल संवार रही थी।
अजय की नज़र कल्लो की चीकनी पीठ से फीसलते हुए नीचे कल्लो के मोटी और चौंड़ी नीतंबो पर जैसे ही पड़ती है। उसका मुह खुला का खुला रह जाता है। मोटी गदराई कल्लो के नीतंबो पर लाल रंग की वी शेप की पैंटी पूरी तरह नीतंबो को जकड़ी थी। जो दृश्य देखकर अजय के लंड में अकड़न सी होने लगी।
कल्लो की मोटाई के वजह से, कल्लो के नीतंब के दोनो पलझे पैंटी के कोने से नीकल हल्का सा झुकाव ले ली थी। अजय कुछ समझ पाता, इससे पहले ही कल्लो अजय की तरफ घूम गई।
कल्लो की बड़ी-बड़ी चूंचीयां उसके ब्रा में कैद क्या कामुक दृश्य पेश कर रहा था। अजय तो बस मुह खोले एकटक देखता ही रह गया। तभी...
कल्लो: "अब यूँ फाड़े देखता ही रहेगा या, जा कर तैयार भी होगा?"
अजय होश में आते ही, हड़बड़ा कर
"ह...हाँ ताई हो रहा हूँ॥"
और जैसे ही अजय जाने के लीए पलटा ही था की...
कल्लो: "अच्छा सुन!"
ये सुनकर अजय घुम जाता है। पर नज़रे कल्लो की तरफ ना कर के कभी इधर-उधर तो कभी नीचे कर लेता।
अजय: "हां ताई!"
कल्लो: "अच्छा...बड़ा भोला बन रहा है। अब तक तो मुह खोले बेशर्मो की तरह मेरी वो देख रहा था। और अब भोला बन रहा है। जरा देख कर बता की ये ब्रा और पैंटी अच्छी हैं या दुसरी पहनू।"
ये सुनकर अजय हक्का-बक्का रह गया। वो थोड़ा शर्मा गया, मगर फीर भी धीरे-धीरे अपनी नजर उपर उठाने लगा तो, अजय की नज़र कल्लो की पैंटी पर पड़ी। जीसे देखकर अजय का हाल बेहाल हो गया। और उसका लंड झटके पे झटके देने लगा।
कल्लो की नज़र अजय के पैंट पर पड़ी तो वो मुस्कुरा पड़ी। वो समझ गई की ये अजय का लंड ही है जो झटके पे झटके दे रहा है।
कल्लो: "बोल ना अच्छी है या दुसरी पहनू?"
अजय की तो हालत ही खराब थी। उसने कभी भी औरत को इस हाल में नही देखा था। और फीर कल्लो की भारी-भरकम भड़कीले अधनंगी जीस्म को देखकर तो उसे अजीब सा अहेसास होने लगा। उसकी नज़र अभी भी कल्लो की पैंटी के बीच चूत पर अटकी थी। उसका मन पैंटी के अंदर छुपी हुई चूत को देखने का कर रहा था। इसलीए...
अजय: "ताई...अच्छी तो है! पर ये...ये कलर नही अच्छा लग रहा है।"
अजय की बात सुनकर कल्लो हल्के से मुस्कुरा पड़ी और फीर बोली-
कल्लो: "देखा...! मैं ना कहती थी उस दुकान वाली से, की ये कलर अच्छा नही है। पर वो साली नही मानी! आ...इधर अजय और इनमे से देखकर बता की कौन सा कलर अच्छा है?"
और ये कहते हुए कल्लो ने, आलमारी के अंदर से कुछ ब्रा और पैंटी नीकाल कर बेड पर रख देती है।
अजय धीरे-धीरे बेड की तरफ बढ़ा और बेड पर आकर बैठ जाता है। और वो ब्रा और पैंटी देखने लगता है। उसे उनमे से एक पैंटी ऐसी दीखी जो ट्रांसपैरेंट थी। उसने झट से वो पैंटी और ब्रा कल्लो को देते हुए कहा-
अजय: "ताई ये वाली...अच्छी है। ब्लैक कलर।"
कल्लो ने हांथ बढ़ा कर ब्रा और पैंटी लेते हुए देखी तो पायी। ब्रा और पैंटी दो ट्रांसपैरेंट थी। ये देखकर कल्लो मन में-
'वाह रे छोरे! क्या चुना है? पूरी पारदर्शी ब्रा भी और पैंटी भी। ताकी चूंचीयों के सांथ-सांथ चूत भी देख सके। देख ले जी भर के...पर इतनी जल्दी ये चूत तूझे नही मीलने वाली-
कल्लो: "हाँ...ये ठीक है! ये पहन लेती हूँ। तू जा...जाकर तैयार हो जा। समय कम बचा है।"
ये सुनकर अजय घड़ी में टाईम देखता है तो, ८ बज रहे थे। और ९ बजे की बस थी। अजय मन मानकर...
अजय: "ठीक है ताई!"
और ये कहकर अजय कमरे से नीकल जाता है। और कल्लो उसका उतरा हुआ चेहरा देख हंस पड़ती है।
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रात को खाने के टेबल पर हवेली में सब एकत्रीत थे। आनंदी, रागीनी, रोहीनी, रोहीत, सवीता, और नंदीनी। संतोष कीसी काम से शहर गया था।
सब लोग खाना खा रहे थे। वहीं आनंदी बार-बार अपनी बेटी को ही देख रही थी। उसे बहुत पछतावा हो रहा था अपनी बेटी पर हांथ उठाकर! तभी...
सवीता: "तू दीन भर आवारा लड़को के सांथ गाँव में क्यूँ घूमता है रे?"
अपनी माँ की बात सुनकर रोहित खाते हुए रुक कर बोला-
रोहीत: "घूमता कहाँ हूँ माँ, वो तो हम कॉलेज़ में जाकर बैठते है। क्यूकीं कॉलेज़ में पेंड़ ज्यादा है। तो गर्मी में ठंढ़ी हवाये लेता हूँ।"
ये सुनकर नंदीनी अपना चेहरा उठाते हुए बोली-
नंदीनी: "हां...हां, मुझे पता है! तू कहां की ठंढ़ी हवाएं लेता है। बता दू चाची को?"
रोहित थोड़ा हड़बड़ा जाता है। और फीर बोला-
रोहित: "ऐ...ऐसा मैने क्या कर दीया? जो...जो तू माँ को बताएगी?"
नंदीनी: "ज्यादा बोल मत बेटा! पोल खुल जायेगी।"
अब रोहित थोड़ा हैरानी से...
रोहित: "ज्यादा कहाँ बोल रहा हूँ दीदी?"
ये सुनकर नंदीनी, रागीनी और तीनो हंस पड़ती है। सवीता और आनंदी को कुछ समझ में नही आया तो,,
सवीता: "कैसी पोल खुल जायेगी नंदीनी?"
ये सुनकर, नंदीनी रोहित की तरफ देखते हुए इशारे में पुछती है की, बता दूँ। और वही रोहीत भी इशारे से हांथ जोड़कर कुछ ना बोलने के लीए गीड़गीड़ाता है। जीसे सवीता और आनंदी देख लेती है...
सवीता: "क्या चल क्या रहा है? कुछ तो बात जरुर है! इसने जरुर कुछ कीया है?"
तभी आनंदी कहती है...
आनंदी: "तू भी ना शुरु हो जाती है। खाने भी नही देती है मेरे बेटे को। अब चुप रह खाना खाने दे उसे। तू खा बेटा!"
रोहित की जान में जान आयी, और मन ही मन अपनी बड़ी माँ को शुक्रीया करने लगा।
सवीता: "आप भी ना दीदी! आप के ही लाड-प्यार ने बीगाड़ रखा है। इसको बाईक दीला दी, हर रोज़ पैसे देती हो। इसीलीए आवारा हो गया है...!"
ये सुनकर आनंदी कुछ कहती नही है। और एक बार अपनी बेटी को देखती है जो इस समय खाना खा रही होती है। फीर वो भी खाना खाने लगती है।
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अजय बस स्टैंड पर कल्लो के सांथ पहुंच गया था। बस वहाँ खड़ी थी। ए.सी स्लीपर बस थी। जीसमे अजय सामन लेकर चढ़ जाता है। और पीछे-पीछे कल्लो भी चढ़ जाती है। बस थोड़ी ही देर में चलने वाली थी, तो सब पैसेजंर बस में बैठ जाते है। कल्लो खीड़की की तरफ बैठी थी। और अजय उसके बगल में...
कल्लो: "अजय...ज़रा इस नंबर पर फोन लगा, मेरी भाभी का नंबर है। सुबह भैया से ली थी, जरा उसे बता दूँ की बस में बैठ गई हूँ। सुबह कीसी को बस स्टाप पर भेंज दे हमे लेने के लीए।"
अजय ने वो कागज़ का टुकड़ा लीया, जीस पर नंबर लीखा था। और फीर अजय ने कल्लो से उसका फोन माँगां तो कल्लो ने कहा की उसका फोन स्वीच ऑफ है। चार्ज करना भूल गई थी।
अजय ने अपने फोन से नंबर मीलाया....
इधर नंदीनी अपने बेड पर लेटी थी। आँखों में नींद ना थी। तभी उसके फोन की घंटी बजी...
नंदीनी फोन को अपने हांथ में लेती है। स्क्रीन पर नया नंबर था। उसके फोन को रीसीव करते हुए...
"ह...हैलो कौन?"
और इधर से अजय....
"हाय...मैं अजय हूँ, आप कमलावती जी की भाभी है ना?"
नंदीनी के कान में अजय शब्द सुनाई पड़ते ही। वो चौंकते हुए बेड पर से उठ जाती है...
नंदीनी: "अ...अजय!"
नंदीनी के दील धड़कन तेज हो गई, अपने दील पर हाथ रख लेती है। उसे ऐसा लगा जैसे उसे उसके भाई अजय ने कॉल की हो। पर उसे कहां पता था की ये जो कॉल है, कीस्मत के खेल ने सच में उसके भाई ने ही एक बहन को कॉल कीया है....